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Saturday 26 October 2013

नारी की सच्चाई

जब शोर हुआ कोई आएगा।
आँगन को किलकारियो महकाएगा।
सबके चेहरे पर खुशियाँ थी।

जन्म हुआ जब मेरा और मैं इस दुनिया में आई।
पर आपनो को ही देख जरा थोड़ा सा घबराई।
सहम गया हर चेहरा जब मुझसे पहली नज़र मिलाई।
एक लड़की की दस्तक घर शायद किसी को रास न आई। 

बड़ी हुई जब थोड़ी सी और बाल अवस्था पाई।
मुझ पर इतनी जिम्मेदारी थी की उछल कूद न पाई।
मेरी भी कुछ एक चाहत थी, मैं भी कुछ बनना चाहती थी। 
पर चूल्हे-चौखट के कामो में छोक दी गयी मेरी पढाई। 

थोड़ी और बढ़ी और मेरी उम्र लगन की आई।
बिन जाने मेरी मर्जी एक अनजाने घर पर दी गयी बिहाई। 
जहाँ न पूछी गयी मेरी नियत न सूरत गयी दिखाई। 
रिश्तो के बाज़ार में बस मेरी कीमत गयी लगाई। 

अपने घर को छोड़ मैं पराये घर चली आई।
पर रह गयी यहाँ भी बन कर मैं खुद की एक परछाई।
सुना तो था की मर्जी से जीना और मरना मेरा जन्म सिद्ध अधिकार था। 
फिर क्यूँ जुल्म और अत्याचार की व्यथा मेरे हिस्से आई। 

इसी व्यथा के साथ बिता मेरा सारा जीवन। 
इसी व्यथा के साथ हुई मेरी विदाई।
पर एक पल के लिए भी यहाँ मैं खुश न रह  पायी।

" अब मैं पूछूँ तुम सबसे ये बात क्या यही है एक नारी सच्चाई।
 नहीं, उसने सही इतनी पीड़ा क्योकि वो अपनी आवाज़ उठा न पायी। 
क्योकि वो अपने हक के खातिर न लड़ पायी।"  



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